जय मां राजराजेश्वरी आज हम बात करेंगे वास्तु शास्त्र का मानव जीवन में महत्त्व एवं प्रभाव?
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वास्तुशास्त्र जीवन के संतुलन का प्रतिपादन करता
है। यह संतुलन बिगड़ते ही मानव एकाकी और समग्र रूप
से कई प्रकार की कठिनाइयों और समस्याओं का
शिकार हो जाता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार
पंचमहाभूतों- पृथ्वी ,जल , वायु , अग्नि और आकाश
के विधिवत उपयोग से बने आवास में पंचतत्व से निर्मित
प्राणी की क्षमताओं को विकसित करने की शक्ति
स्वत: स्फूर्त हो जाती है।
हमारे ग्रंथों के अनुसार—-
“शास्तेन सर्वस्य लोकस्य परमं सुखम्
चतुवर्ग फलाप्राप्ति सलोकश्च भवेध्युवम्
शिल्पशास्त्र परिज्ञान मृत्योअपि सुजेतांव्रजेत्
परमानन्द जनक देवानामिद मीरितम्
शिल्पं बिना नहि देवानामिद मीरितम्
शिल्पं बिना नहि जगतेषु लोकेषु विद्यते।
जगत् बिना न शिल्पा च वतंते वासवप्रभोः॥”
विश्व के प्रथम विद्वान वास्तुविद् विश्वकर्मा के
अनुसार शास्त्र सम्मत निर्मित भवन विश्व को
सम्पूर्ण सुख, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति
कराता है। वास्तु शिल्पशास्त्र का ज्ञान मृत्यु पर
भी विजय प्राप्त कराकर लोक में परमानन्द उत्पन्न
करता है, अतः वास्तु शिल्प ज्ञान के बिना निवास
करने का संसार में कोई महत्व नहीं है। जगत और वास्तु
शिल्पज्ञान परस्पर पर्याय हैं।
वास्तु एक प्राचीन विज्ञान है। हमारे ऋषि
मनीषियों ने हमारे आसपास की सृष्टि में व्याप्त
अनिष्ट शक्तियों से हमारी रक्षा के उद्देश्य से इस
विज्ञान का विकास किया। वास्तु का उद्भव
स्थापत्य वेद से हुआ है, जो अथर्ववेद का अंग है। इस
सृष्टि के साथ-साथ मानव शरीर भी पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु और आकाश से बना है और वास्तु शास्त्र
के अनुसार यही तत्व जीवन तथा जगत को प्रभावित
करने वाले प्रमुख कारक हैं। भवन निर्माण में भूखंड और
उसके आसपास के स्थानों का महत्व बहुत अहम होता
है।
भूखंड की शुभ-अशुभ दशा का अनुमान वास्तुविद्
आसपास की चीजों को देखकर ही लगाते हैं। भूखंड
की किस दिशा की ओर क्या है और उसका भूखंड पर
कैसा प्रभाव पड़ेगा, इसकी जानकारी वास्तु शास्त्र
के सिद्धांतों के अध्ययन विश्लेषण से ही मिल सकती
है। इसके सिद्धांतों के अनुरूप निर्मित भवन में रहने
वालों के जीवन के सुखमय होने की संभावना प्रबल
हो जाती है। हर मनुष्य की इच्छा होती है कि उसका
घर सुंदर और सुखद हो, जहां सकारात्मक ऊर्जा का
वास हो, जहां रहने वालों का जीवन सुखमय हो। इसके
लिए आवश्यक है कि घर वास्तु सिद्धांतों के अनुरूप हो
और यदि उसमें कोई वास्तु दोष हो, तो उसका
वास्तुसम्मत सुधार किया जाए। यदि मकान की
दिशाओं में या भूमि में दोष हो तो उस पर कितनी
भी लागत लगाकर मकान खड़ा किया जाए, उसमें रहने
वालों की जीवन सुखमय नहीं होता। मुगल कालीन
भवनों, मिस्र के पिरामिड आदि के निर्माण-कार्य में
वास्तुशास्त्र का सहारा लिया गया है।
वास्तु का प्रभाव चिरस्थायी है, क्योंकि पृथ्वी का
यह झुकाव शाश्वत है, ब्रह्माण्ड में ग्रहों आदि की
चुम्बकीय शक्तियों के आधारभूत सिध्दांत पर यह
निर्भर है और सारे विश्व में व्याप्त है इसलिए
वास्तुशास्त्र के नियम भी शाश्वत है, सिध्दांत
आधारित, विश्वव्यापी एवं सर्वग्राहा हैं। किसी
भी विज्ञान के लिए अनिवार्य सभी गुण तर्क
संगतता, साध्यता, स्थायित्व, सिध्दांत परकता एवं
लाभदायकता वास्तु के स्थायी गुण हैं। अतः वास्तु
को हम बेहिचक वास्तु विज्ञान कह सकते हैं।
जैसे आरोग्यशास्त्र के नियमों का विधिवत् पालन
करके मनुष्य सदैव स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकता है,
उसी प्रकार वास्तुशास्त्र के सिध्दांतों के अनुसार
भवन निर्माण करके प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को
सुखी बना सकता है। चिकित्साशास्त्र में जैसे डाक्टर
असाध्य रोग पीड़ित रोगी को उचित औषधि में एवं
आपरेशन द्वारा मरने से बचा लेता है उसी प्रकार रोग,
तनाव और अशांति देने वाले पहले के बने मकानों को
वास्तुशास्त्र के सिध्दांतों के अनुसार ठीक करवा लेने
पर मनुष्य जीवन में पुनः आरोग्य, शांति और सम्पन्नता
प्राप्त कर सकता है।
घर के वास्तु का प्रभाव उसमें रहने वाले सभी सदस्यों
पर पड़ता है, चाहे वह मकान मालिक हो या
किरायेदार। आजकल के इस महंगाई के दौर में मकान
बनाना एक बहुत बड़ी समस्या है। लोग जैसे-तैसे जोड़-
तोड़ करके अपने रहने के लिए मकान बनाने हेतु भूखंड
खरीद लेते हैं। जल्दबाजी में अथवा सस्ती जमीन के
चक्कर में वे बिना किसी शास्त्रीय परीक्षण के भूमि
खरीद लेते हैं, और इस तरह खरीदी गई जमीन उनके लिए
अशुभ सिद्ध होती है। उस पर बने मकान में रहने वाले पूरे
परिवार का जीवन कष्टमय हो जाता है।
आज फ्लैटों का चलन है। ये फ्लैट अनिययिमत आकार के
भूखंडों पर बने होते हैं। अब एक छोटे से भूखंड पर भी एक
बोरिंग, एक भूमिगत पानी की टंकी व सेप्टिक टैंक
बनाए जाते हंै। लेकिन ज्ञानाभाव के कारण मकान के
इन अंगों का निर्माण अक्सर गलत स्थानों पर हो
जाता है। फलतः संपूर्ण परिवार का जीवन दुखमय हो
जाता है।
जनसंख्या के आधिक्य एवं विज्ञान की प्रगति के
कारण आज समस्त विश्व में बहुमंजिली इमारतों का
निर्माण किया जा रहा है। जनसामान्य वास्तु
सिध्दांतों के विरुध्द बने छोटे-छोटे फ्लेट्स में रहने के
लिए बाध्य है। कहा जाता है कि इन्हें वास्तुशास्त्र
के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता।
पर यदि राज्य सरकारें वास्तुशास्त्र के सिध्दांतों के
अनुसार कॉलोनी निर्माण करने की ठान ही लें और
भूखण्डों को आड़े, तिरछे, तिकाने, छकोने न काटकर
सही दिशाओं के अनुरूप वर्गाकार या आयताकार
काटें, मार्गों को सीधा निकालें एवं कॉलोनाइजर्स
का बाध्य करें कि उन्हें वास्तुशास्त्र के सिध्दांतों
का अनुपालन करते हुए ही बहुमंजिली इमारतें तथा
अन्य भवन बनाने हैं तो शत-प्रतिशत तो न सही पर
साठ प्रतिशत तक तो वास्तुशास्त्र के नियमों के
अनुसार नगर, कॉलोनी, बस्ती, भवनों, औद्योगिक-
व्यापारिक केन्द्रों तथा अन्य का निर्माण किया
जा सकता है जिसके फलस्वरूप जन सामान्य सुख,
शांति पूर्ण एवं अरोग्यमय, तनाव रहित जीवन व्यतीत
कर सकता है।
हमारे प्राचीन साहित्य में वास्तु का अथाह
महासागर विद्यमान है। आवश्यकता है केवल खोजी
दृष्टि रखने वाले सजग गोताखोर की जो उस विशाल
सागर में अवगाहन कर सत्य के माणिक मोती निकाल
सके और उस अमृत प्रसाद को समान रूप से जन सामान्य
में वितरित कर सुख और समृध्दि का अप्रतिम भण्डार
भेंट कर सकें, तभी वास्तुशास्त्र की सही उपयोगिता
होगी।
मानव सभ्यता के विकास एवं विज्ञान की उन्नति के
साथ भवन निर्माण कला में अनेकानेक परिवर्तन होते
गये। जनसंख्या में द्रूतगति से होती वृध्दि और भूखण्डों
की सीमित संख्या जनसामान्य की अशिक्षा और
वास्तुग्रंथों के संस्कृत में लिखे होने एवं मुद्रण प्रणाली
के विकसित न होने के कारण इस शास्त्र की
उत्तरोत्तर अवहेलना होगी गयी। विदेशी शासकों के
बार-बार हुए आक्रमणों एवं अंग्रेजों के भारत में आगमन
के पश्चात् पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में हम अपने
समृध्द ज्ञान के भंडार पर पूर्णरूप से अविश्वास कर इसे
कपोल कल्पित, भ्रामक एवं अंधविश्वास समझने लगे।
भौतिकतावाद के इस युग में जहां शारीरिक सुख बढ़े हैं,
वहीं लोगों का जीवन तनावग्रस्त भी हुआ है। इस
तनाव के वैसे तो कई कारण होते हैं, परंतु वास्तु
सिद्धांतों के प्रतिकूल बना भवन भी इसका एक प्रमुख
कारण होता है। पुराने समय में सभी घर लगभग
आयताकार होते थे। घरों में आम तौर पर बोरिंग,
पानी की भूमिगत टंकी, सेप्टिक टैंक इत्यादि नहीं
होते थे। जमीन समतल हुआ करती थी। यही कारण था
कि तब लोगों का जीवन इस तरह तनावग्रस्त नहीं
हुआ करता था।
जनसामान्य वास्तु सिध्दांतों के विरुध्द बने छोटे-
छोटे फ्लेट्स में रहने के लिए बाध्य है। कहा जाता है
कि इन्हें वास्तुशास्त्र के अनुरूप नहीं बनाया जा
सकता।यदि राज्य सरकारें वास्तुशास्त्र के सिध्दांतों
के अनुसार कॉलोनी निर्माण करने की ठान ही लें
और भूखण्डों को आड़े, तिरछे, तिकाने, छकोने न
काटकर सही दिशाओं के अनुरूप वर्गाकार या
आयताकार काटें, मार्गों को सीधा निकालें एवं
कॉलोनाइजर्स का बाध्य करें कि उन्हें वास्तुशास्त्र
के सिध्दांतों का अनुपालन करते हुए ही बहुमंजिली
इमारतें तथा अन्य भवन बनाने हैं तो शत-प्रतिशत तो न
सही पर साठ प्रतिशत तक तो वास्तुशास्त्र के
नियमों के अनुसार नगर, कॉलोनी, बस्ती, भवनों,
औद्योगिक-व्यापारिक केन्द्रों तथा अन्य का
निर्माण किया जा सकता है जिसके फलस्वरूप जन
सामान्य सुख, शांति पूर्ण एवं अरोग्यमय, तनाव रहित
जीवन व्यतीत कर सकता है।
वास्तु शास्त्र एवं ज्योतिष शास्त्र दोनों एक-दूसरे के
पूरक हैं क्योंकि दोनों एक-दूसरे के अभिन्न अंग हैं। जैसे
शरीर का अपने विविध अंगों के साथ अटूट संबंध होता
है। ठीक उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र का अपनी
सभी शाखायें प्रश्न शास्त्र, अंक शास्त्र, वास्तु
शास्त्र आदि के साथ अटूट संबंध है। ज्योतिष एवं
वास्तु शास्त्र के बीच निकटता का कारण यह है कि
दोनों का उद्भव वैदिक संहितायों से हुआ है। दोनों
शास्त्रों का लक्ष्य मानव मात्र को प्रगति एवं
उन्नति की राह पर अग्रसर कराना है एवं सुरक्षा देना
है। अतः प्रत्येक मनुष्य को वास्तु के अनुसार भवन का
निर्माण करना चाहिए एवं ज्योतिषीय उपचार (मंत्र,
तंत्र एवं यंत्र के द्वारा) समय-समय पर करते रहना
चाहिए, क्योंकि ग्रहों के बदलते चक्र के अनुसार बदल-
बदल कर ज्योतिषीय उपचार करना पड़ता है। वास्तु
तीन प्रकार के होते हैं- त्र आवासीय – मकान एवं
फ्लैट त्र व्यावसायिक -व्यापारिक एवं औद्योगिक
त्र धार्मिक- धर्मशाला, जलाशय एवं धार्मिक
संस्थान। वास्तु में भूमि का विशेष महत्व है। भूमि चयन
करते समय भूमि या मिट्टी की गुणवत्ता का विचार
कर लेना चाहिए।
भूमि परीक्षण के लिये भूखंड के मध्य में भूस्वामी के
हाथ के बराबर एक हाथ गहरा, एक हाथ लंबा एवं एक
हाथ चौड़ा गड्ढा खोदकर उसमें से मिट्टी निकालने
के पश्चात् उसी मिट्टी को पुनः उस गड्ढे में भर देना
चाहिए। ऐसा करने से यदि मिट्टी शेष रहे तो भूमि
उत्तम, यदि पूरा भर जाये तो मध्यम
और यदि कम पड़
जाये तो अधम अर्थात् हानिप्रद है। अधम भूमि पर
भवन निर्माण नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार पहले
के अनुसार नाप से गड्ढा खोद कर उसमें जल भरते हैं,
यदि जल उसमें तत्काल शोषित न हो तो उत्तम और
यदि तत्काल शोषित हो जाए तो समझें कि भूमि
अधम है। भूमि के खुदाई में यदि हड्डी, कोयला
इत्यादि मिले तो ऐसे भूमि पर भवन नहीं बनाना
चाहिए।
यदि खुदाई में ईंट पत्थर निकले तो ऐसा भूमि लाभ देने
वाला होता है। भूमि का परीक्षण बीज बोकर भी
किया जाता है। जिस भूमि पर वनस्पति समय पर
उगता हो और बीज समय पर अंकुरित होता हो तो
वैसा भूमि उत्तम है। जिस भूखंड पर थके होकर व्यक्ति
को बैठने से शांति मिलती हो तो वह भूमि भवन
निर्माण करने योग्य है। वास्तु शास्त्र में भूमि के
आकार पर भी विशेष ध्यान रखने को कहा गया है।
वर्गाकार भूमि सर्वोत्तम, आयताकार भी शुभ होता
है। इसके अतिरिक्त सिंह मुखी एवं गोमुखि भूखंड भी
ठीक होता है। सिंह मुखी व्यावसायिक एवं गोमुखी
आवासीय दृष्टि उपयोग के लिए ठीक होता है।
किसी भी भवन में प्राकृतिक शक्तियों का प्रवाह
दिशा के अनुसार होता है अतः यदि भवन सही
दिशा में बना हो तो उस भवन में रहने वाला व्यक्ति
प्राकृतिक शक्तियों का सही लाभ उठा सकेगा,
किसकी भाग्य वृद्धि होगी। किसी भी भवन में
कक्षों का दिशाओं के अनुसार स्थान इस प्रकार
होता है।
वास्तुशास्त्र को लेकर हर प्रकार से प्रयोग किया
जा सकता है। भूखण्ड एवं भवन के दोषपूर्ण होने पर उसे
उचित प्रकार से वास्तुनुसार साध्य बनाया जा
सकता है। हमने अपने अनुभव से जाना है कि जिन घरों
के दक्षिण में कुआं पाया गया उन घरों की
गृहस्वामिनी का असामयिक निधन आकस्मिक रूप से
हो गया तथा घर की बहुएं चिरकालीन बीमारी से
पीड़ित मिली। जिन घरों या औद्योगिक संस्थानों
ने नैऋत्य में बोरिंग या कुआं पाया गया वहां निरन्तर
धन नाश होता रहा, वे राजा से रंक बन गये, सुख
समृध्दि वहां से कोसों दूर रही, औद्योगिक संस्थानों
पर ताले पड़ गये। जिन घरों या संस्थानों के ईशान
कोण कटे अथवा भग्न मिले वहां तो संकट ही संकट
पाया गया। यहां तक कि उस गृहस्वामी अथवा
उद्योगपति की संतान तक विकलांग पायी गयी।
जिन घरों के ईशान में रसोई पायी गयी उन
दम्पत्तियों के यहां कन्याओं को जन्म अधिक मिला
या फिर वे गृह कलह से त्रस्त मिले। जिन घरों में
पश्चिम तल नीचा होता है तथा पश्चिमी नैऋत्य में
मुख्य द्वार होती है, उनके पुत्र मेधावी होने पर भी
निकम्मे तथा उल्टी-सीधी बातों में लिप्त मिले हैं।
वास्तु शास्त्र के आर्षग्रन्थों में बृहत्संहिता के बाद
वशिष्ठसंहिता की भी बड़ी मान्यता है तथा
दक्षिण भारत के वास्तु शास्त्री इसे ही प्रमुख मानते
हैं। इस संहिता ग्रंथ के अनुसार विशेष वशिष्ठ संहिता
के अनुसार अध्ययन कक्ष निवृत्ति से वरुण के मध्य
होना चाहिए। वास्तु मंडल में निऋति एवं वरुण के मध्य
दौवारिक एवं सुग्रीव के पद होते हैं। दौवारिक का
अर्थ होता है पहरेदार तथा सुग्रीव का अर्थ है सुंदर कंठ
वाला। दौवारिक की प्रकृति चुस्त एवं चौकन्नी
होती है। उसमें आलस्य नहीं होती है। अतः दौवारिक
पद पर अध्ययन कक्ष के निर्माण से विद्यार्थी चुस्त
एवं चौकन्ना रहकर अध्ययन कर सकता है तथा क्षेत्र
विशेष में सफलता प्राप्त कर सकता है। पश्चिम एवं
र्नैत्य कोण के बीच अध्ययन कक्ष के प्रशस्त मानने के
पीछे एक कारण यह भी है कि यह क्षेत्र गुरु, बुध एवं चंद्र
के प्रभाव क्षेत्र में आता है। बुध बुद्धि प्रदान करने
वाला, गुरु ज्ञान पिपासा को बढ़ाकर विद्या
प्रदान करने वाला ग्रह है। चंद्र मस्तिष्क को
शीतलता प्रदान करता है। अतः इस स्थान पर
विद्याभ्यास करने से निश्चित रूप से सफलता मिलती
है।
टोडरमल ने अपने ‘वास्तु सौखयम्’ नामक ग्रंथ में वर्णन
किया है कि उत्तर में जलाशय जलकूप या बोरिंग करने
से धन वृद्धि कारक तथा ईशान कोण में हो तो संतान
वृद्धि कारक होता है। राजा भोज के समयंत्रण
सूत्रधार में जल की स्थापना का वर्णन इस प्रकार
किया-‘पर्जन्यनामा यश्चाय् वृष्टिमानम्बुदाधिप’।
पर्जन्य के स्थान पर कूप का निर्माण उत्तम होता है,
क्योंकि पर्जन्य भी जल के स्वामी हैं। विश्वकर्मा
भगवान ने कहा है कि र्नैत्य, दक्षिण, अग्नि और
वायव्य कोण को छोड़कर शेष सभी दिशाओं में
जलाशय बनाना चाहिये। तिजोरी हमेशा उत्तर, पूर्व
या ईशान कोण में रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त
आग्नेय दक्षिणा, र्नैत्य पश्चिम एवं वायव्य कोण में धन
का तिजोरी रखने से हानि होता है। ड्राईंग रूम को
हमेशा भवन के उत्तर दिशा की ओर रखना श्रेष्ठ माना
गया है, क्योंकि उत्तर दिशा के स्वामी ग्रह बुध एवं
देवता कुबेर हैं। वाणी को प्रिय, मधुर एवं संतुलित
बनाने में बुध हमारी सहायता करता है। वाणी यदि
मीठी और संतुलित हो तो वह व्यक्ति पर प्रभाव
डालती है और दो व्यक्तियों के बीच जुड़ाव पैदा
करती है।
र्नैत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में वास्तु पुरुष के पैर होते
हैं। अतः इस दिशा में भारी निर्माण कर भवन को
मजबूती प्रदान किया जा सकता है, जिससे भवन को
नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव से बचाकर
सकारात्मक शक्तियों का प्रवेश कराया जा सकता
है। अतः गोदाम (स्टोर) एवं गैरेज का निर्माण र्नैत्य
कोण में करते हैं। जिस भूखंड का ईशान कोण बढ़ा हुआ
हो तो वैसे भूखंड में कार्यालय बनाना शुभ होता है।
वर्गाकार, आयताकार, सिंह मुखी, षट्कोणीय भूखंड
पर कार्यालय बनाना शुभ होता है। कार्यालय का
द्वार उत्तर दिशा में होने पर अति उत्तम होता है।
पूर्वोत्तर दिशा में अस्पताल बनाना शुभ होता है।
रोगियों का प्रतीक्षालय दक्षिण दिशा में होना
चाहिए। रोगियों को देखने के लिए डॉक्टर का
कमरा उत्तर दिशा में होना चाहिए। डॉक्टर मरीजों
की जांच पूर्व या उत्तर दिशा में बैठकर करना
चाहिए। आपातकाल कक्ष की व्यवस्था वायव्य कोण
में होना चाहिए। यदि कोई भूखंड आयताकार या
वर्गाकार न हो तो भवन का निर्माण आयताकार
या वर्गाकार जमीन में करके बाकी जमीन को
खाली छोड़ दें या फिर उसमें पार्क आदि बना दें।
भवन को वास्तु के नियम से बनाने के साथ-साथ
भाग्यवृद्धि एवं सफलता के लिए व्यक्ति को
ज्योतिषीय उपचार भी करना चाहिए। सर्वप्रथम
किसी भी घर में श्री यंत्र एवं वास्तु यंत्र का होना
अति आवश्यक है। श्री यंत्र के पूजन से लक्ष्मी का
आगमन होता रहता है तथा वास्तु यंत्र के दर्शन एवं
पूजन से घर में वास्तु दोष का निवारण होता है। इसके
अतिरिक्त गणपति यंत्र के दर्शन एवं पूजन से सभी
प्रकार के विघ्न-बाधा दूर हो जाते हैं। ज्योतिष एवं
वास्तु एक-दूसरे के पूरक हैं। बिना प्रारंभिक
ज्योतिषीय ज्ञान के वास्तु शास्त्रीय ज्ञान
प्राप्त नहीं किया जा सकता और बिना ‘कर्म’ के इन
दोनों के आत्मसात ही नहीं किया जा सकता। इन
दोनों के ज्ञान के बिना भाग्य वृद्धि हेतु किसी भी
प्रकार के कोई भी उपाय नहीं किए जा सकते।
वास्तुविद्या मकान को एक शांत , सुसंस्कृत और
सुसज्जित घर में तब्दील करती है। यह घर परिवार के
सभी सदस्यों को एक हर्षपूर्ण , संतुलित और समृद्धि
जीवन शैली की ओर ले जाता है।
मकान में अपनी ज़रूरत से अधिक अनावश्यक निर्माण
और फिर उन फ्लोर या कमरों को उपयोग में न लाना
,बेवजह के सामान से कमरों को ठूंसे रखना भवन के
आकाश तत्व को दूषित करता है। नकारात्मक
शक्तियों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए सुझाव है कि
भवन में उतना ही निर्माण करें जितना आवश्यक हो।
भाग्य का निर्माण केवल ज्योतिष और वास्तु से ही
नहीं होता, वरन् इनके साथ कर्म का योग होना भी
अति आवश्यक है। इसलिए ज्योतिषीय एवं वास्तुसम्मत
ज्ञान के साथ-साथ विभिन्न दैवीय साधनाओं,
वास्तु पूजन एवं ज्योतिष व वास्तु के धार्मिक पहलुओं
पर भी विचार करना अत्यंत आवश्यक है। भाग्यवृद्धि में
वास्तु शास्त्र का महत्व वास्तु विद्या बहुत ही
प्राचीन विद्या है। ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान के
साथ-साथ वास्तु शास्त्र का ज्ञान भी उतना ही
आवश्यक है जितना कि ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान।
विश्व के प्राचीनतम् ग्रंथ ऋग्वेद में भी इसका उल्लेख
मिलता है। वास्तु के गृह वास्तु, प्रासाद वास्तु, नगर
वास्तु, पुर वास्तु, दुर्गवास्तु आदि अनेक भेद हैं।
भाग्य वृद्धि के लिए वास्तु शास्त्र के नियमों का
महत्व भी कम नहीं है। घर या ऑफिस का वास्तु ठीक
न हो तो भाग्य बाधित होता है। वास्तु और भाग्य
का जीवन में कितना संयोग है? क्या वास्तु के द्वारा
भाग्य बदलना संभव है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए यह
जानना आवश्यक है कि भाग्य का निर्माण वास्तु से
नहीं अपितु कर्म से होता है और वास्तु का जीवन में
उपयोग एक कर्म है और इस कर्म की सफलता का
आधार वास्तुशास्त्रीय ज्ञान है। पांच आधारभूत
पदार्थों भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश से यह
ब्रह्मांड निर्मित है और ये पांचों पदार्थ ही पंच
महाभूत कहे जाते हैं। इन पांचों पदार्थों के प्रभावों
को समझकर उनके अनुसार अपने भवनों का निर्माण
कर मनुष्य अपने जीवन और कार्यक्षेत्र को अधिक
सुखी और सुविधा संपन्न कर सकता है।
वास्तु सिद्धांत के अनुरूप निर्मित भवन एवं उसमें
वास्तुसम्मत दिशाओं में सही स्थानों पर रखी गई
वस्तुओं के फलस्वरूप उसमें रहने वाले लोगो का जीवन
शांतिपूर्ण और सुखमय होता है। इसलिए उचित यह है
कि भवन का निर्माण किसी वास्तुविद से परामर्श
लेकर वास्तु सिद्धांतों के अनुरूप ही करना चाहिए।
इस तरह, मनुष्य के जीवन में वास्तु का महत्व अहम होता
है। इसके अनुरूप भवन निर्माण से उसमें सकारात्मक
ऊर्जा का वास होता है। फलस्वरूप उसमें रहने वालों
का जीवन सुखमय होता है। वहीं, परिवार के सदस्यों
को उनके हर कार्य में सफलता मिलती है।
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