जय मां राजराजेश्वरी आज हम बात करेंगे नवरात्री के विषय में
नवरात्रि प्रश्न: नवरात्रियां क्यों मनाई जाती हैं और वर्ष में कब-कब आती हैं?
विभिन्न नवरात्रियों का अलग-अलग महत्व बताएं।
इन दिनों किस प्रकार पूजा उपासना की जानी चाहिए और उसके क्या लाभ हैं?
भारतीय धार्मिक परंपरा में नवरात्रियों का बहुत ही महत्व है। नवरात्रा या नौरात्रि के दो अर्थ लिए जा सकते हैं - नौ रात या नौ रातें। सृष्टि का सृजन गहन अंधकार में भूगर्भ में या माता के गर्भ में ही होता है। मानव योनि के लिए गर्भ के ये नौ महीने नौ रातों के समान होते हैं जिनमें आत्मा, मानव शरीर धारण करती है।
जिस प्रकार रात्रि हमें विश्राम देती हैं और हमारे शरीर में ऊर्जा का संचार करती हैं, उसी प्रकार नवरात्र की नौ रातें हमारे शरीर में अतिरिक्त शक्ति व ऊर्जा का संचार करती हैं क्योंकि ये रातें अति सूक्ष्म ऊर्जा से परिपूर्ण होती हैं। अतः इनका उपयोग कर हम अपने अंदर भी नई ऊर्जाओं का पुनः संचरण कर जीवन में अधिकाधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। ”पहली शलै पत्रुी कहलावे .दूसरी ब्रह्मचारिणी मन भावें, तीसरी चंद्रघंटा शुभनाम, चौाथी कूष्मांडा सुखधाम, पांचवीं देवी स्कंदमाता, छठी कात्यायनी विख्याता, सातवीं कालरात्रि महामाया, आठवीं महागौरी जगजाया, नवमी सिद्धिदात्रि जग जानें, नवदुर्गा के नाम बखाने।“
मातृ शक्ति के रूप में देवी जी की पूजा उपासना की भिन्न-भिन्न पद्धतियां विभिन्न रूपों में भारत में प्रचलित हैं। उनकी उपासना का सर्वश्रेष्ठ रूप सभी जगह नवरात्रियों के अवसर पर देखने को मिलता है।
यह काल मात्र उत्सव ही नहीं है, वरन सिद्धि प्राप्ति का, साधना उपासना का श्रेष्ठ अवसर होता है। बंगाल प्रांत में श्री दुर्गा, राजस्थान में गणगौर और गुजरात में भगवती अंबा गरबा की पूजा वैयक्तिक और सामूहिक दोनों रूप में की जाती है।
छोटी-छोटी लड़कियां भी शतमुख जाति के रूप में सांझी के नाम से व्रत रखती हैं, उनकी पूजा प्रतिष्ठा करती हैं। नवरात्रि के अवसर पर जवारे रखे जाते हैं दुर्गा-सप्तशती का पाठ मंत्र जप, हवन पूजन, कन्या भोजन, भंडारा आदि का आयोजन भक्तगण अंबा माता की कृपा पाने, उन्हें प्रसन्न करने के लिए करते हैं।
इन दिनों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश सहित विभिन्न स्थानों पर दुर्गा की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। विजय दशमी तक विभिन्न स्थानों पर रामलीलाएं की जाती हैं, मेले लगते हैं। योद्धाओं का यही सैन्य पर्व होता है। इसी अवसर पर क्षत्रिय शस्त्र पूजन करते हैं। देवी जागरण के कार्यक्रमों के दौर भी इसी अवसर पर चलते हैं।
इन सबका उद्देश्य किसी न किसी रूप में देवी पूजन ही रहता है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्रि के काल में माता के कोमल प्राणों का प्रवाह भूलोक पर होता है, उनका वास रहता है। वैसे तो भगवती देवी दुर्गा आदि माताओं का नाम स्मरण पूजन, पाठ, श्रद्धालु भक्तगण कभी भी कर सकते हैं, परंतु प्रातःकाल या सायंकाल इसके लिए अधिक उपयुक्त माना गया है।
दिन और रात्रि के मिलाप की अवधि संध्या कहलाती है। संध्या काल में किए गए ईश विनय, पूजन अर्चन, स्तुति पाठ, प्रार्थना, जप आदि अथवा उपासना के पुण्यों का फल शीघ्र मिलता है किसी अन्य समय में की गई पूजा की तुलना में अधिक होता है। संध्या अर्थात दिन और रात्रि की मिलन बेला की भांति ऋतुओं की भी मिलन बेला होती है जो विभिन्न प्रकार के कार्यों को करने के लिए बहुत अधिक उपयोगी एवं कार्यों की अभिवृद्धि करने वाली होती है। ऋतुएं वैसे तो छह होती हैं और प्रमुख रूप में तीन मानी गई हैं परंतु यथार्थतः देखा जाए तो केवल दो ही हैं - शीत और ग्रीष्म। इन दोनों का मिलाप काल या मिलन की बेला आश्विन और चैत्र मास की नवरात्रि काल में वर्ष में केवल दो बार ही आती है।
इन्हें ऋतु संध्या के नाम से जाना जाता है। ऋतु परिवर्तन का यह ऊर्जामय, उत्साह उमंग का, नवरात्रि का, नवमोद का समय धार्मिक कार्यों के करने के लिए, आध्यात्मिक जागृति के लिए, विभिन्न प्रयोजनों के लिए साधनाों की सिद्धि पाने के लिए विशिष्ट रूप में पुण्यप्रद एवं तत्काल शुभ फलदायक होता है। विधि विधान के साथ नवरात्रियों को मनाने से, उनकी पूजा, उपासना, अनुष्ठान आदि करने से मनुष्यों की विपत्तियों का नाश होता है, मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, यहां तक कि लोग असाध्य बीमारियों से भी मुक्त होने लगते हैं।
कठिन से कठिन कार्य नवरात्रि काल में करने से सुगमता के साथ पूर्ण होने लगते हैं। कुमारियां भी श्रेष्ठ पति की कामना लेकर नवरात्रि में जगदंबा दुर्गा की बड़ी ही भक्ति भावना से पूजा उपासना करती हैं। नवरात्रि के अवसर पर रामायण प्रेमी लोग देवी उपासना के साथ-साथ रामचरितमानस का संपूर्ण पाठ नवाह्न पारायण के रूप में करते हैं।
जो जातक वर्ष में किसी दूसरे समय में देवी पूजन, अनुष्ठान, साधना आदि के लिए समय नहीं निकाल पाते, उनकी यह कोशिश रहती है कि वे नवरात्रि में इस तरह के अनुष्ठान, दुर्गा सप्तशती पाठ, ग्रह शांति के कृत्य, दान, व्रतोपवास, जप हवनादि के कार्य अवश्य कर लें। नवरात्रियां वर्ष में कब-कब आती हैं ? एक वर्ष में नवरात्रियां चार बार आती हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है:
गर्मी के महीने में पड़नेवाली नवरात्रि जो बसंत ऋतु में चांद्र संवत्सर प्रारंभ होने के दिन से अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से रामनवमी तक के नौ दिनों में मनाई जाती है, ‘वासंतेय नवरात्र’ कहलाती हैं। ठंड के दिनों में पड़ने वाली नवरात्रि को जो आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रदिपदा तिथि से नवमी तिथि तक के नौ दिनों में मनाई जाती है, ‘शारदेय नवरात्र’ कहते हैं।
इस नवरात्रि की नवमी के दूसरे दिन दशहरा का त्यौहार मनाया जाता है। इस तरह प्रथम नवरात्रि अर्थात चैत्र माह वाली नवरात्रि रामनवमी वाली तो आश्विन माह की दूसरी नवरात्रि दशहरे वाली नवरात्रि हुई। वासंतेय नवरात्र में नवमी तिथि को भगवान राम का जन्म होता है तो शारदेय नवरात्र में नवमी तिथि के समापन होते ही दुष्ट रावण का अंत होता है।
दोनों नवरात्रियों के अंत समय में मां जगदंबा अपने भक्त जनों को ही नहीं, विश्व के संपूर्ण हिंदू सनातन धर्मावलंबियों को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राघवेंद्र श्री रामचंद्र जी की जय जयकार करने का स्वर्ण अवसर प्रदान कर देती हैं - एक बार उनके जन्म दिन के अवसर पर और दूसरी बार उनके द्वारा दशहरा के दिन रावण का बध कर देने के अवसर पर।
ऋतु चक्र की उपरोक्त दोनों षडमासिक नवरात्रियों के बीच दो और नवरात्रियां होती हैं जो गुप्त नवरात्रियां कहलाती हैं। उनकी कालावधि इस प्रकार हैं: आषाढ़ी गुप्त नवरात्रि जो आषाढ मास के शुक्ल की प्रतिपदा तिथि से आरंभ होकर नौ दिनों तक चलती है। माघी गुप्त नवरात्रि जो माघ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से आरंभ होकर नौ दिनों तक रहती है। नवरात्रि में गिनती के पूरे नौ दिनों का ही विचार किया जाता है। रात्रि दिन की संगिनी है। दिन और रात के मेल से एक दिन बनता है जिसेज्योतिष की भाषा में अहोरात्र कहते हैं।
शिव की शिवरात्रि शक्ति की नवरात्रि कहलाती है। श्री नवदुर्गा रूपा नवरात्रि नवदुर्गा के शैलपुत्री आदि जो नवस्वरूप शास्त्रों में वर्णित हैं, उनका ध्यान पृथक पृथक रूपों में नवरात्रि के नौ दिनों में किया जाता है। भगवती शैलपुत्री से सिद्धिदात्री तक के नवदुर्गा के नवरूपों का पूजन अर्चन नवरात्रियों में प्रतिपदा तिथि से नवमी तिथियों तक करने का विधान है।
दुर्गति हारिणी दुर्गा माता का दुर्गा रूप में प्रतिदिन नवरात्रि में भक्त गणों के द्वारा पूजन अर्चन इस रूप में किया जाता है कि सिंहवाहिनी माता दुर्गा दुर्गति दूर करने वाली हों, हमारे ऊपर प्रसन्न हों, अपनी भक्ति प्रदान करें और हमारी मनोकामनाओं को अपना बालक जानकर, भक्तवत्सला बनकर पूर्ण करें।
नवरात्रि में दुर्गा अष्टमी की पूजा का विशेष महत्व है। नवरात्रि के एक दिन पूर्व की पूजा को भी देवी भक्त काफी महत्व देते हैं। देवी उपासना से कैवल्य परम पद मोक्ष की प्राप्ति होती है। ”या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।“ शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण नवदुर्गा का सर्वप्रथम स्वरूप शैलपुत्री कहलाया।
शैलपुत्री की नवरात्रि में प्रथम दिन पूजा की जाती है। ये वृषवाहना शिवा ही हैं। घोर तपश्चर्या वाली तपश्चारिणाी दुर्गा का दूसरा स्वरूप ब्रम्हचारिणाी कहलाया। नवरात्रि के दूसरे दिन इनकी पूजा का विधान है। अक्षमाला व कमंडल धारिणी सिद्धि व विजय देती हैं। घंटाकार चंद्र मस्तक पर धारण करने वाली माता चंद्रघंटा कहलाती हैं।
तीसरे दिन नवरात्रि में इनकी पूजा करने से भक्तों का इहलोक एवं परलोक में कल्याण होता है। यह चंद्रसम शीतलदायी हैं। पिंड और ब्रह्मांड को उत्पन्न करने वाली देवी कूष्मांडा हैं। यह दुर्गा जी का चतुर्थ स्वरूप है इसलिए नवरात्रि में चतुर्थी को इनकी पूजा होती है। यह रोग, शोक का नाश करके आयु, यश और बल प्रदान करती है।
स्कंद की माता होने के कारण स्कंदमाता कहलाने वाली देवी की नवरात्रि की पंचमी तिथि को पूजा अर्चना का विधान है। यह गोद में स्कंददेव को लिए रहती हैं। सदा शुभ फलदायिनी हैं। कात्यायन सुता कात्यायनी नवदुर्गा का छठा स्वरूप है। इनकी पूजा नवरात्रि की षष्ठी तिथि को छठे दिन की जाती है। यह दानवघातिनी देवी शुभ फल प्रदान करती हैं। काल का नाश करने वाली देवी कालरात्रि की पूजा नवरात्रि में सातवें दिन की जाती है।
गर्दभारूढ़ा, कराली, भयंकरी, कृष्णा, कालरात्रि माता डरावनी होने पर भी भक्तों उनकी असीम कृपा रहती है। धन ऐश्वर्य प्रदायिनी, चैतन्यमयी, त्रैलोक्य मंगला, तापत्रयहारिणी माता का अष्टम स्वरूप महागौरी है। आठ वर्ष की आयु की होने के कारण आठवें दिन नवरात्रि में इन्हें पूजने से सदा सुख शांति देती हैं। अष्ट सिद्धियां प्रदान करने वाला माता का नवम स्वरूप सिद्धिदात्री कहलाता है। नौवें दिन जो नवरात्रि का अंतिम दिन है, सिद्धिदात्री की पूजा उपासना करने का विधान है। श्री त्रिगुणात्मिका शक्तिरूपा नवरात्रि नवरात्रि में साधक त्रिशक्ति की त्रिदिवसीय उपासना भी करते हैं। तीन दिन महाकाली की प्रथम पूजा, मध्य के तीन दिनों में महालक्ष्मी की पूजा और नवरात्रि के अंतिम तीन दिनों में महा सरस्वती की पूजा का विधान है।
तीनों की साधना करने पर तामसिक दुर्गुणों का नाश और सात्विक गुणों की अभिवृद्धि होती और उपासक के हृदय में धीरे धीरे ज्ञान का उदय होने लगता है। प्रथम तीन दिनों में भक्तगण दुर्गा माता से अपनी तामसिक प्रवृत्तियों जैसे मन की मलिनता, अवगुणों और बुराइयों को नष्ट करने की विनती करते हैं। तब वे महाकाली बनकर प्रथम तीन दिनों में महाकाली के रूप में भक्त जनों द्वारा पूजित होने पर उनके भीतर जो तामसी वृत्ति और आसुरी गण होते हैं, उनसे संग्राम कर उन्हें जड़ सहित काट डालती हैं और उपासक की रक्षा करते हुए उन्हें अंधकूपों में गिरने से बचाती हैं।
यही त्रिगुणात्मिका शक्ति का प्रथम रूप माता महाकाली हुआ। जब इस तरह से मनुष्यों की आसुरी वृत्तियों की इहलीला समाप्त होने लगे तब भक्तों को अपने हृदय में सदगुणों, सात्विक प्रवृतियों को भरने के लिए नवरात्रि के मध्यवर्ती तीन दिन श्री महालक्ष्मी जी का पूजन करना होता है, क्योंकि वे सात्विक शक्ति हैं। हमें श्री मदभगवत गीता के सोलहवें अध्याय के अनुरूप सात्विक प्रवृत्तियों और गुणों की अभिवृद्धि के लिए निष्ठा और दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत पड़ती है। भक्त जनों की पुकार सुनकर देवी, महालक्ष्मी रूप में अपने भक्तों पर तामसिक वृत्ति रूपी असुर गणों को आक्रमण करने से रोक देती हैं और भक्तों की पूजा उपासना से प्रसन्न होकर उन्हें सद्गुण संपदा रूपी प्रदान करती हैं।
अंतिम तीन दिन श्री महा सरस्वती के पूजन से भक्तजनों का जीवन सफल होता है। वे उनसे अपने हृदय में बसे अज्ञानांधकार को हटाकर ज्ञान ज्योति जाग्रत करने की प्रार्थना करते हैं। जब उपासक की तामसी वृत्तियां दूर हो जाती हैं और उसमें सात्विक वृत्तियां बढ़ जाती हैं, तब उस ज्ञान की प्राप्ति होती है। उनकी पूजा आत्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए सर्वोत्कृष्ट मानी गई है।
महासरस्वती का श्वेत वस्त्रालंकार आत्मज्ञान का द्योतक है। महासरस्वती का पूजन करने से प्रसन्न होने पर उनकी वीणा मधुर ध्वनि करने लगती है जिससे भक्तों के हृदय में ज्ञान का प्रकाश फैल जाता है। त्रिगुणमयी माता का यही तृतीय रूप महा सरस्वती रूप कहलाता है।
पूजा उपासना कैसे करें ?
हर व्यक्ति जिसे माता के श्री चरणों में प्रेम की प्रतीति होती है, स्वयं नवरात्रि के पर्वकाल में निम्न रूप में पूजन कर भगवती की प्रसन्नता की प्राप्ति का प्रयास करता है। सर्व प्रथम नवरात्रि के पूर्व पूजा का स्थान निश्चित कर उसे साफ सुथरा कर लें। उस स्थान पर नर्मदा जल, गंगा जल अथवा किसी अन्य पवित्र नदी के जल का छिड़काव करें। पूजा के स्थान और समय के साथ साथ बैठने के लिए आसन भी निश्चित कर लें। पूजा के समय उपासक का मुख पूर्व दिशा में रहे। लाल ऊन के बने हुए अथवा लाल कंबल के आसन का प्रयोग शुभ माना गया है। पूजन सामग्री पूजा थाली में एकत्रित कर यथाोचित जगह पर रख लें।
पूजा का शुभ मुहूर्त, लग्न आदि की जानकारी प्राप्त करें। चैकी की व्यवस्था करें। मां जगदंबा की तस्वीर या मूर्ति लाल वस्त्र या पट्टे पर बिछा कर स्थापित करें। माता के समक्ष एक सुंदर सा नवदुर्गा यंत्र भी रखें। नवरात्रि के पहले दिन स्नान आदि से निवृत्त होकर पूजा करने के लिए बैठें। निर्धारित किसी भी शुभ मुहूर्त में भगवती दुर्गा की उपासना के पूर्व भगवती पार्वती के पुत्र विघ्नविनाशक गणपति देवता का पंचोपचार पूजन उनका मंत्र ्ॐ गं गणपतये नमः“ जपते हुए कर लें। गणेश जी को स्नान कराकर केसर कुमकुम का तिलक लगाएं। दूर्बा, पुष्प, गुलाल, कच्चा सूत्र चढ़ाएं। लड्डू या लड्डू सहित प्रसाद भोग या नैवेद्य के रूप में अर्पित करें।
पान, सुपारी, लौंग, इलायची भी अर्पित करें। दक्षिणा के साथ आरती उतारें। हर देवी का एक भैरव होता है, अपने गुरुदेव होते हैं। पूर्व दिशा के स्वामी भगवान सूर्य होते हैं, जिनकी ओर मुख करके अर्थात पूर्वाभिमुख होकर शक्ति की आरााधना करनी चाहिए। अपने अपने कुल देवता और कुल देवी का स्मरण करें एवं स्तवन करें। साथ ही नगर देवता, ग्राम देवता और स्थान देवता को भी प्रणाम करें। ये सब भैरवादि देवता स्मरण और प्रणाम मात्र से ही खुश होकर आपकी रक्षा, सहयता करेंगे और नवरात्रि काल की पूजा उपासना सफल होगी।
नवरात्रि पूजन में कांस्य प्रतिमा अर्थात कांसे से निर्मित सिंहवाहिनी देवी की मूर्ति का अति विशिष्ट महत्व है, प्रतिमा शुभ फलदायिनी होती है। कांसे के अतिरिक्त चांदी और सोने की प्रतिमा की पूजा का भी विधान है। इसके उपरांत एक कलश पर हल्दी या रोली से स्वस्तिक का मंगल चिह्न बनाकर और जल से भरकर उसकी स्थापना कर लें। कलश में सिक्का, सुपारी, साबुत हल्दी की गांठ, सभी एक एक की संख्या में गंगा जल डाल दें।
पांच, सात, नौ या ग्यारह पत्तों वाला आम्र वृक्ष का पल्लव कलश में मुख पर स्थापित कर उस पर लाल सूती कपड़े में या सूत के कपड़े में एक नारियल लपेटकर रख दें। कलश में जल के देवता वरुण का आवाहन करें। कलश का चंदन, चावल, कुंकुम, केसर, कुशा, कलावा, पान, पुष्प अर्पित करते हुए पूजन करें। कलश का पूजन करते समय ”ॐनमश्चंडिकायै“ या ”ॐ दुं दुर्गायै नमः“ मंत्र मन ही मन जपते रहना चाहिए। कलश पूजन के पूर्व घी या तेल का अखंड दीप जलाना चाहिए क्योंकि पूजन की साक्षी या पूजन कर्म की साक्षी अग्नि स्वरूपा ज्योति ही होती है। देवी विग्रह के बायीं ओर घृत ज्योति और दाहिनी ओर तेल वाली ज्योति जलाने का विधान है। इसके उपरांत देवी जी की पूजा कुल परंपरा के अनुसार करते हुए मां का शृंगार करना चाहिए। चित्र वाली स्थिति में पुष्प माला, कुंकुम तिलक और चुनरी से ही मां का श्रृंगार करना चाहिए।
मिष्टान्न, सुगंधित लाल या सफेद पुष्प, लाल चंदन, कुंकुम या रोली आदि भगवती को चढ़ाने चाहिए। पाठ करने के पूर्व भगवती से ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए- शक्ति दो मुझे करूं तुम्हारा ध्यान, निर्विघ्न हो तेरा पाठ, मेरा हो कल्याण। पाठ करते समय पोथी या पुस्तक हांथ में लेकर नहीं पढ़ना चाहिए।
मंत्र का जप मन ही मन और स्तुति, पाठ आदि स्पष्ट ठीक ठीक उच्चारण करते हुए करने चाहिए, किंतु बहुत जोर-जोर से बोल कर पाठ नहीं करना चाहिए। दुर्गा जी के निम्नलिखित नवार्ण मंत्र का कम से कम 108 बार जप करना चाहिए - 9 दिनो तक प्रतिदिन सुबह शाम दोनों समय अर्थात एक माला जप।
नवार्ण मंत्र: ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
दुर्गा चालीसा दुर्गा जी की बहु प्रचलित स्तुति है। नवरात्रि में इसका सुबह शाम न्यूनतम एक अधिकतम नौ पाठ करने चाहिए। चमन की दुर्गा स्तुति दुर्गा सप्तशती का ही संक्षिप्त पद्यानुवाद है। इसका भी नवरात्रि काल में प्रतिदिन प्रातः और सायं एक-एक बार पाठ कर सकते हैं।
दुर्गा सप्तमशी सात सौ श्लोक वाली होने के कारण ही दुर्गा सप्तमशी कहलाती है। श्री मार्कण्डेय पुराण के तेरहवें अध्याय का दुर्गा माहात्म्य संबंधी अंश श्री दुर्गासप्तशती के नाम से जाना जाता है। इसका पाठ गुरु के सान्निध्य में ही करना शुभ होता है। नवरात्रि के दिनों में सात्विक एवं ब्रह्मचर्य भाव का पालन व तामसिक पदार्थों और मांस-मदिरा आदि का त्याग करना चाहिए। क्रोध एवं झूठ से बचना चाहिए। भूमि शयन करना चाहिए एवं देवी के प्रति पूर्ण रूपेण समर्पित चाहिए।
प्रतिदिन की नवरात्रि पूजन के अंत में भगवती की घी और कपूर से सुबह-शाम दोनों समय आरती गाते हुए उतारनी चाहिए। देवी के विग्रह के मुख, कटि, चरण और संपूर्ण अंगों सहित कुल चैदह बार (एक $ दो $ चार $ सात) आरती करने का सर्वमान्य नियम है।
नौवें दिन 2 छोटे छोटे बालकों सहित 9 कन्याओं को भोजन करना चाहिए। नौ कन्याएं दुर्गा के नौ रूपों की प्रतीक होती हैं और दो छोटे बालक परांबा मां जगदंबा के वीर पुत्र रूप उनके दो मुख्य गण हनुमान और भैरव स्वरूप होते हैं। नवरात्रि के समापन पर अगले दसवें दिन सायंकाल काम में आने वाली सामग्री को छोड़कर समस्त हवन-पूजन सामग्री, पुष्पमाला, फूल, पत्ताें आदि को बहते हुए जल में प्रवाहित कर विसर्जित करना चाहिए।
यदि कलश मिट्टी का तो उसे भी विसर्जित कर देना चाहिए। पूजा में प्रयुक्त पान-सुपारी जो कलश में डाले गए सिक्के के साथ किसी पंडित या ब्राह्मण को दे देना चाहिए। जिस लाल कपड़े को बिछाकर उस पर मां को नवरात्रि काल में आसीन किया गया हो, उस देवी जी की चरण रज से युक्त कपड़े को अपने पर्स, पेटी या पैसा रखने के स्थान पर संभालकर रख लेना चाहिए। माता को अर्पित किया गया प्रसाद पूजन करने वाले को सबसे पहले थोड़ा सा स्वयं ग्रहण करना चाहिए, फिर बांट देना चाहिए।
वर्ष में नवरात्रि दो बार मनायी जाती है। नवरात्रि के इन प्रमुख दो अवसरों पर नौ दिनों तक दिन में एक बार भोजन का त्याग करने और सात्विक आहार ग्रहण करने से पाचन क्रिया ठीक रूप से काम करने लगती है और साथ ही रक्त स्वतः ही शुद्ध हो जाता है। साधक स्वस्थ बना रहता है। उसे मौसमी ब्याधियां नहीं सतातीं। नवरात्रि के पुण्य पर्व का समय स्वास्थ्य वर्धन के लिए अत्यंत उपयुक्त होता है। साथ ही नवरात्रि काल में भक्ति भावना में भी वृद्धि होती है। इन दिनों आकाश साफ सुथरा होता है।
यह समय खगोलशास्त्रियों के लिए उपयुक्त होता है जब उन्हें ग्रहों के अवलोकन में सहूलियत होती है। विश्व के अधिकांश में गर्भाधान वसंत ऋतु के आगमन पर ही होता है। इस ऋतु में मनुष्य तथा अन्य जीव जंतुओं में आंतरिक उत्साह और उमंग का अतिरेक होता है। नवरात्रि काल में दुर्गोपासकों में ज्ञान, विवेक, प्रतिभा, नई सूझ बूझ, दूरदर्शिता आदि उत्पन्न हो जाते हैं और सांसारिक तथा मानसिक परेशानियों का सामना करने की शक्ति आ जाती है। नवरात्रि के किसी एक ही पर्व पर अपनी एक मात्र आराध्या दुर्गा देवी के भक्तगण जब उनकी पूजा आराधना करते हैं तो इसका प्रतिफल सामान्य क्रम की पूजा उपासना की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर होता है।
देवी मठों में, शक्तिपीठों में विशेष रूप में पूजा प्रतिष्ठा के कार्यक्रमों का आयोजन नवरात्रि के अवसर पर ही होता है। नवरात्रि पर्वों का आयोजन आरंभ करने का मूल उद्देश्य आदिकाल से यही रहा है कि लोग वैर भाव को भूलकर, आपसी प्रेम और सद्भाव के साथ मिल जुलकर धर्म कार्य करने का महत्व समझें। नवरात्रि में दुर्गोपासना से लाभ भगवान रामचंद्र को पति के रूप में पाने के लिए सीता के पार्वती जी की पूजा किए जाने पर पार्वती ने यह आशीर्वाद दिया था और इसी आशीर्वाद से उनकी मनोकामना पूर्ण हुई।
नवरात्रि में कुमारी कन्याएं मनोनुकूल पति की प्राप्ति के लिए बड़ी श्रद्धा के साथ व्रत धारण कर देवी की पूजा उपासना करती हैं और उनका मनोरथ सफल हो जाता है। विवाहित स्त्रियां सुखमय जीवन, पति की समृद्धि और दीर्घायु संतान सुख एवं संतान के कल्याण की कामना के साथ नवरात्रि पूजन करती हैं।
नवरात्रि अनुष्ठान से दुख दारिद्रय का शमन, लक्ष्मी की प्राप्ति, रोग से बचाव, धर्म एवं अध्यात्म में रुचि और पारिवारिक कलह, राग-द्वेष आदि से मुक्ति होती है। इसके अतिरिक्त विद्या अर्जन और विवाह के मार्ग में आने वाली बाधाएं दूर तथा घर में मांगलिक कार्य होते हैं। साधकगण यंत्र, मंत्र तंत्र की क्रियाओं को नवरात्रि काल में सिद्ध करने में सफल होते हैं।
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