जय मां राजराजेश्वरी आज हम बात करेंगे
क्या है पारद के विषय में
”पारद“ शब्द में ‘प’ = विष्णु, ‘अ’ = अकार (कालिका), ‘अर = शिव और ‘द’ = ब्रह्मा के प्रतीक है। आज हम इस लेख के द्वारा यह जानेंगे कि, पारद धातु क्या है ? पारद एवं पारद से बनी वस्तुओं की शक्ति, लाभ, रहस्य तथा शिव महापुराण में पारद धातु की उत्पत्ति को लेकर उल्लेख एक सत्यकथा के बारे में, कथा कुछ इस प्रकार हैं- जब समस्त देवता निरंतर आसुरी शक्ति से पराजित होने लगे थे, तब निस्तेज व निर्वीर्य इन्द्रादि देवतागणों ने ब्रह्मा से स्तुति कर दानवों पर स्थाई रूप से विजय प्राप्त करने का उपाय पूछा।
सृष्टिकर्ता परम पिता ब्रह्मा ने जवाब दिया कि शक्तिपुंज शिव के वीर्य से उत्पन्न उनका पुत्र यदि देवताओं का सेनापतित्व स्वीकार करे तो निश्चित ही देवताओं की विजय होगी।
देवताओं के अतिशय विनयपूर्वक आग्रह के कारण सादाम्ब शिव, पार्वती की ओर पुत्र कामना हेतु प्रवृत्त हुए। अपने ससुराल में ही नगाधिराज हिमालय की हिमाच्छादित निर्जीव एकांत गिरि कंदरा में स्वयंभू शिव संभोग की कामना से पर्वतराज की पुत्री की ओर उन्मुख हुए।
देवताओं ने उत्सुकतावश यह जानने के लिए कि योगिराज रूद्ररूप शिव काम की ओर प्रवृत्त होते हैं या नहीं। अग्निदेव को कपोत पक्षी (कबूतर) के रूप में हिमालय की कंदरा में भेजा। प्रकृति व पुरुष के विलक्षण संयोग को देखकर अग्निदेव (कबूतर) के मुंह से गुटरगूं ... गुटरगूं ... का शब्द अनायास ही निकल गया।
अपक्षी स्थान में, कामक्रीड़ा से स्खलित होते हुए शिव ने कपोत को देखकर लज्जा का अनुभव किया एवं कुछ क्रोध और कौतूहल से निसृत्त होते हुए वीर्य को कपोदरूपि अग्नि के मुख में डाल दिया। अग्निदेव इस तेज को सहन न कर सके तथा तेजी से वहां उड़कर उस वीर्य का गंगा में त्याग कर शांति का अनुभव किया। भागीरथी गंगा ने असह्य उस तेज को पुनः पृथ्वी पर फेंक दिया।
देवताओं ने उत्सुकतावश यह जानने के लिए कि योगिराज रूद्ररूप शिव काम की ओर प्रवृत्त होते हैं या नहीं। अग्निदेव को कपोत पक्षी (कबूतर) के रूप में हिमालय की कंदरा में भेजा। प्रकृति व पुरुष के विलक्षण संयोग को देखकर अग्निदेव (कबूतर) के मुंह से गुटरगूं ... गुटरगूं ... का शब्द अनायास ही निकल गया।
अपक्षी स्थान में, कामक्रीड़ा से स्खलित होते हुए शिव ने कपोत को देखकर लज्जा का अनुभव किया एवं कुछ क्रोध और कौतूहल से निसृत्त होते हुए वीर्य को कपोदरूपि अग्नि के मुख में डाल दिया। अग्निदेव इस तेज को सहन न कर सके तथा तेजी से वहां उड़कर उस वीर्य का गंगा में त्याग कर शांति का अनुभव किया। भागीरथी गंगा ने असह्य उस तेज को पुनः पृथ्वी पर फेंक दिया।
बृहद रसराज सुंदर के अनुसार गंगा से निसृत्त शिव वीर्य के मल की सिद्धि के कारण सुवर्णादि धातुएं उत्पन्न हुई। अत्यंत बोझ एवं वमन के कारण जितना वीर्य अग्नि रूपी कपोत के मुख से गंगा तक पहुंचते-पहुंचते पृथ्वी पर गिर गया वही वीर्य ”पारे“ अर्थात् ”पारद“ के रूप में पृथ्वी पर विख्यात हुआ।
प्राचीनकाल से चली आ रही अजश्रुतियों के आधार पर अग्नि देव के मुंह से गिरे हुए उस तेजस्वी वीर्य के प्रभाव से पृथ्वी पर पांच स्थानों पर गहरे-गहरे खड्डे (कुएं की आकृति में) बन गए। उसी काल से यह कूपस्थ शिववीर्य पांच अलग-अलग खड्डों के कारण पांच अलग-अलग नामों से विख्यात हुआ। पहले कूप में गिरा पारा कुछ लाल रंग का होने से स्वयं शुद्ध एवं सर्वदोष रहित होने के कारण इसे ”रस“ नाम से अभिहित किया गया।
इसी के सेवन से देवता रोग रहित अजर व अमर हो गये। दूसरे खड्डे में गिरने वाला पारा कुछ कृष्ण वर्ण (काले रंग) का रुक्ष, अति चंचल व दोष रहित होने के कारण ”रसेंद्र“ नाम से अभिहित किया गया। इसके सेवन से वासुकी व तक्षकादि नाग मृत्यु तथा वृद्धावस्था रहित हो गए।
इसी के सेवन से देवता रोग रहित अजर व अमर हो गये। दूसरे खड्डे में गिरने वाला पारा कुछ कृष्ण वर्ण (काले रंग) का रुक्ष, अति चंचल व दोष रहित होने के कारण ”रसेंद्र“ नाम से अभिहित किया गया। इसके सेवन से वासुकी व तक्षकादि नाग मृत्यु तथा वृद्धावस्था रहित हो गए।
कालांतर में समस्त देवताओं ने मिलकर मिट्टी, पत्थर व चट्टानों से इन दोनों कुओं को पाट (ढक) दिया। तभी से उक्त दोनों जाति के ”पारे“ मनुष्य लोक में मानव जाति को अति दुर्लभ हो गए। तीसरे खड्डे में गिरा पारा कुछ पीतवर्णीय पीलापन लिए हुए एवं कुछ दोषयुक्त होने के कारण इसे ”सूत“ नाम से अभिहित किया गया।
यह पारा अष्टादश (18) संस्कार करने से सिद्ध होता है तथा इसके विधिवत सेवन से मनुष्य की देह लौह व वज्र के समान सुदृढ़ व कठोर हो जाती है। चतुर्थ कुएं में जो पारद नाम से अभिहित किया गया, वह पारा अनेक प्रकार के योगों से व प्रक्रियाओं से सब प्रकार के साध्य व असाध्य रोगों का हरण करता है।
यही पारद रसायन शास्त्र के माध्यम से सिद्ध होने पर ताम्र व शीशे व रजतादि धातुओं के अणु-परमाणुओं में विस्फोट कर उन्हें स्वर्ण में परिवर्तित कर देता है। भूमंडल में इस पारे की खानें यत्र-तत्र उपलब्ध हैं।
यह पारा अष्टादश (18) संस्कार करने से सिद्ध होता है तथा इसके विधिवत सेवन से मनुष्य की देह लौह व वज्र के समान सुदृढ़ व कठोर हो जाती है। चतुर्थ कुएं में जो पारद नाम से अभिहित किया गया, वह पारा अनेक प्रकार के योगों से व प्रक्रियाओं से सब प्रकार के साध्य व असाध्य रोगों का हरण करता है।
यही पारद रसायन शास्त्र के माध्यम से सिद्ध होने पर ताम्र व शीशे व रजतादि धातुओं के अणु-परमाणुओं में विस्फोट कर उन्हें स्वर्ण में परिवर्तित कर देता है। भूमंडल में इस पारे की खानें यत्र-तत्र उपलब्ध हैं।
पंचम कूप में प्राप्त पारे, मोर की चंद्रिका (मोर पंख के समान), अनेक प्रकार के चित्र-विचित्र रंग दिखलाई देने से इसे ”मिश्रक पारद“ के नाम से अभिहित किया गया। यह पारा भी अष्टादश (18) संस्कार करने से सिद्ध होकर, साधक को इच्छित फल अवश्य देता है। हमारे शास्त्रों के अनुसार पारद में इतनी अदभुत चमत्कारी शक्तियां है कि इसके प्रभाव से मनुष्य संभव-असंभव कार्य भी कर सकता है।
मृत्यु तथा रोगों पर विजय प्राप्त कर सकता है, हवा में उड़ने व आकाश में विचरण करने की शक्ति भी प्राप्त कर सकता है। पारद की अद्भुत शक्तियों के प्रभाव से मनुष्य देवताओं तुल्य पराक्रम को भी प्राप्त कर सकता है। पारद की इन अदभुत चमत्कारी शक्तियों को देखकर देवराज इंद्र विचलित होकर पुनः देवाधिदेव महादेव भोलेनाथ शंकर की शरण में गए और उनसे विनती की, कि हे नाथ् इस पारद की अद्भुत चमत्कारी शक्तियों के प्रभाव से यदि सर्व मनुष्य देवताओं के समान सर्वप्रभुत्व संपन्न प्रभावशाली एवं शक्तिशाली हो जाएंगे तो फिर देवताओं को कौन पूछेगा?
देवराज इंद्र की इस करुणामय प्रार्थना को सुनकर देवाधिदेव महादेव ने उस पारे को दोषयुक्त कंचुकी (कांचली) युक्त कर दिया। तब से लेकर आज तक यह पारा बिना संस्कार के सिद्ध नहीं होता। अतः पारे की सिद्धि के लिए मनुष्य को शास्त्रोक्त शुद्धि करनी पड़ती है। हालांकि शुद्ध पारद की शास्त्रोक्त शुद्धि एवं प्राण प्रतिष्ठा की विधि थोड़ी जटिल एवं लंबी अवश्य है। वैज्ञानिक अनुसंधान के अनुसार यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि पारद धातु अग्नि गर्भ में नहीं रह सकता है।
100 डिग्री का ताप मिलने पर यह फैलने लगता है और 300 डिग्री का ताप पर यह आकाशगामी होकर अदृश्य हो जाता है। पारद धातु तथा पारद से बनी सामग्री का तापमान हमेशा ही न्यूनतम होता है, जिसे छूते ही उसकी गुणवत्ता का आभास हो जाता है।
पारद धातु में वे अनुपम एवं असीमित गुण पाये जाते हैं, जो मानव जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक होते हैं। पारद से निर्मित वस्तुओं को सूक्ष्मता से देखने पर उन पर छोटे-छोटे धब्बे दिखते हैं। पारद धातु वजन में लोहे से सोलह गुना अधिक भार का होता है।
पारद को लेकर हमारे शास्त्रों में अनेक बातों का उल्लेख है, जैसे पारद की शक्ति, लाभ आदि। आयुर्वेद शास्त्र में पारद को लेकर कुछ ऐसा उल्लेख है- आयुर्द्रविंणं आरोग्यं वन्हिर्मेशामहद्बलम्। रूप यौवन-लावण्यं रसोपासनया भवेत्।।
अर्थात् आयु, द्रव्य(धन), आरोग्यता, जठराग्नि, बुद्धि, अतिशय बल, रूप-यौवन एवं लावण्यता, ये सभी रस उपासना अर्थात् पारद भक्षण से होती है। हतोहन्ति जरा व्याधि, मूच्र्छितो व्याधि घातकः। बद्धः खेचरतां धत्ते को न्यः सूता कृपाकर।।
अर्थात् साध्य रोग के निदान हेतु तो औषधि के सेवन का उल्लेख मिलता है परंतु असाध्य रोगों में आयुर्वेद शास्त्र में अन्य चिकित्सा शास्त्रों में कोई औषधि, कोई नहीं कही किंतु, यह पारद ही है, जो असाध्य रोगों का भी शमन करता है। यह पारे की सर्वोच्च श्रेष्ठता का प्रमाण है।
अर्थात् साध्य रोग के निदान हेतु तो औषधि के सेवन का उल्लेख मिलता है परंतु असाध्य रोगों में आयुर्वेद शास्त्र में अन्य चिकित्सा शास्त्रों में कोई औषधि, कोई नहीं कही किंतु, यह पारद ही है, जो असाध्य रोगों का भी शमन करता है। यह पारे की सर्वोच्च श्रेष्ठता का प्रमाण है।
मृत पारा बुढ़ापे का नाश कर मंत्रों की सिद्धि को प्रदान करता है। मूर्छित पारा व्याधि (सभी प्रकार के रोगों) का नाशक है तथा बद्ध पारा मनुष्य को आकाश गमन की शक्ति भी देता है। पारद का भक्षण तीन जन्मों के पापों का नाश करता है। आयुर्वेद शास्त्र में मूच्र्छित पारद को चंदन, अगर, कपूर और केसर से अंतर्गत स्थापना करना ही ”शिवपूजा“ कहलाती है। इससे मनुष्य ”शिवत्व“ की प्राप्त करता है।
हमारे शास्त्रों में पारद धातु के केवल दर्शन करने का भी अत्यंत महत्व है, आयुर्वेद शास्त्रों तथा धर्मशास्त्रों ने एक स्वर से पारद दर्शन के लाभ व पुण्य को स्वीकार किया है। यथा- शताश्वमेधेन कृतेन पुप्यंगोकोटिभिः स्वर्णसहस्प्रदानात्। नृणां भवेत्सूतकदर्शनेन यत्सर्वतीथेषु कृताभिषेकात्।।
हमारे शास्त्रों में पारद धातु के केवल दर्शन करने का भी अत्यंत महत्व है, आयुर्वेद शास्त्रों तथा धर्मशास्त्रों ने एक स्वर से पारद दर्शन के लाभ व पुण्य को स्वीकार किया है। यथा- शताश्वमेधेन कृतेन पुप्यंगोकोटिभिः स्वर्णसहस्प्रदानात्। नृणां भवेत्सूतकदर्शनेन यत्सर्वतीथेषु कृताभिषेकात्।।
अर्थात, जो पुण्य 100 अश्वमेघ यज्ञ करने से तथा करोड़ गौदान करने से एवं एक सहस्र (1000) तोले के स्वर्ण दान करने से तथा सब तीर्थों के स्नान करने से जो पुण्य अर्जित होता है वो पुण्य ”पारद“ के दर्शन मात्र से सहज में ही प्राप्त हो जाता है।
पारद शिवलिंग को लेकर हमारे शास्त्रों में साफ-साफ उल्लेख है-
केदारदोनि लिंगानि, पृथिव्यां यानि कानिचित्।
तानि दृष्ट्ंवासु यत्पुण्यतत्पुण्यं रसदर्शनात्।।
पारद शिवलिंग को लेकर हमारे शास्त्रों में साफ-साफ उल्लेख है-
केदारदोनि लिंगानि, पृथिव्यां यानि कानिचित्।
तानि दृष्ट्ंवासु यत्पुण्यतत्पुण्यं रसदर्शनात्।।
अर्थात्, केदार आदि पवित्र तीर्थस्थलों से लेकर पृथ्वी तल पर जितने भी शिवलिंग है उनके दर्शन से जो पुण्य मिलता है वही पुण्य पारद निर्मित शिवलिंग से सहज में ही प्राप्त हो जाता है और भी कहा है-
स्वयंभूलिंग साहस्त्रैः, यत्फलं सम्यगार्यनात्।
तत्फलं कोटि गुणितं, रसलिंगाच्र्चनाद् भवेत्।।
स्वयंभूलिंग साहस्त्रैः, यत्फलं सम्यगार्यनात्।
तत्फलं कोटि गुणितं, रसलिंगाच्र्चनाद् भवेत्।।
अर्थात् जो पुण्य हजार स्वनिर्मित पार्थिव शिवलिंग के पूजन से होता है, उससे करोड़ गुना फल पारद शिवलिंग के पूजन से प्राप्त होता है।
पारद शिवलिंग में साक्षात् देवाधिदेव महादेव भगवान शिव का वास होता है। अतः पारद शिवलिंग को घर के पूजा मंदिर में स्थापित कर, इस पर नित्य बिल्व पत्र अर्पित करें तथा दूध, पानी एवं धूप दीप से नित्य पूजा करें तथा नित्य ”ऊँ नमः शिवाय“ अथवा ”महामृत्युंजय“ मंत्र का 1, 3, 5, 7, 21 या 108 बार जाप अवश्य करें।
पारद शिवलिंग की स्थापना श्रावण माह के सोमवारों में अत्यंत शुभ एवं फलदाई होता है। शास्त्रकारों ने पारद एवं पारद शिवलिंग में साक्षात शिव का वास कहा है। अतः आप पारद धातु एवं पारद धातु से निर्मित पारद शिवलिंग की अद्भुत महिमा को समझ सकते हैं।
पारद शिवलिंग में साक्षात् देवाधिदेव महादेव भगवान शिव का वास होता है। अतः पारद शिवलिंग को घर के पूजा मंदिर में स्थापित कर, इस पर नित्य बिल्व पत्र अर्पित करें तथा दूध, पानी एवं धूप दीप से नित्य पूजा करें तथा नित्य ”ऊँ नमः शिवाय“ अथवा ”महामृत्युंजय“ मंत्र का 1, 3, 5, 7, 21 या 108 बार जाप अवश्य करें।
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